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जगदलपुरl वर्ष 1913, बसी वल्द मुंदी, ‘जोगी’। तहसील कार्यालय के दस्तावेज में कभी किसी अंग्रेज अधिकारी ने जब बस्तर के आमाबाल गांव का सरकारी सर्वे किया होगा, तो सरकारी स्याही से जाति के स्थान पर इस गांव के सबसे प्रतिष्ठित परिवार के नाम के आगे उन्हें राजपरिवार से मिला पद ‘जोगी’ लिख दिया। आमाबाल का जोगी परिवार 600 वर्ष से बस्तर दशहरा को निर्विघ्न संपन्न कराने जोगी बिठाई रस्म नौ दिन तक निराहार रहकर निभाता है। यह रस्म निभाने वाले आमाबाल परिवार के लिए सम्मान के स्वरूप में राजपरिवार से जोगी पद मिला था, जो सरकारी दस्तावेज में हुई त्रुटि से उनकी जाति बन गई। भारत की स्वतंत्रता के बाद जब जातिगत आधार पर आरक्षण व लाभ मिलना शुरू हुआ तो मूलत: हल्बा जनजाति से नाता रखने वाला जोगी परिवार स्वयं को आदिवासी बताते, पिछले 75 वर्ष से अपनी खो चुकी जातिगत पहचान ढूंढ रहा है।पीढ़ी दर पीढ़ी स्वयं को हल्बा जनजाति में सम्मिलित करने वे शासन-प्रशासन से लगातार लड़ाई भी लड़ रहे हैं। यहां आमाबाल के जोगी परिवार की बात इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि दो दिन बाद आठ अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जोगी परिवार के गांव आमाबाल आ रहे हैं, पर जोगी परिवार का भाग्य वे बदल पाएंगे या नहीं यह सवाल जोगी परिवार कर रहा है। आमाबाल में झोपड़ी में रह रहे जोगी परिवार के घर पहुंचने पर महिलाएं इमली की फोड़ाई करते दिखती है। डमरु नाग कहते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके गांव आ रहे हैं, और इसे लेकर वे उत्सुक हैं। प्रधानमंत्री मोदी से अगर मिलना होगा तो वे अपने जाति के लाभ से वंचित होने की कहानी उन्हें बताएंगे, क्योंकि 75 वर्ष से वे इस लड़ाई को लड़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि गांव के बाहर एक एकड़ खेत उनकी है, पर इसके अतिरिक्त वनभूमि पर भी परिवार खेती करता है। तीन वर्ष से वे वनाधिकार पट्टा मांग रहे हैं, पर उन्हें इसका लाभ नहीं मिल सका है। प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ भी नहीं मिला है, इसलिए परिवार झोपड़ी में रहता है।
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