
पेण्ड्रा/दिनांक 14 अक्टूबर 2023
नवरात्रि विशेष –
राजमहल परिसर पेण्ड्रा में 16 वीं शताब्दी से स्थापित मां काली और मां दुर्गा की प्रतिमा क्षेत्र वासियों की आस्था का केंद्र
पिंडारी डाकुओं ने स्थापित की थी प्रतिमा
17 वीं शताब्दी में जमींदार ने पिंडारी डाकुओं का खात्मा कर मंदिर परिसर में बनाया था राजमहल
पिंडारी डाकुओं से परेशान रतनपुर राजा ने पेण्ड्रा को जमींदारी बनाया था
पिंडरा वन और क्षेत्र पिंडारी डाकुओं से प्रभावित होने के कारण ही नगर का नाम पेण्ड्रा पड़ा
पेण्ड्रा / राजमहल पेण्ड्रा के परिसर में 16वीं शताब्दी में स्थापित मां काली और मां दुर्गा की मूर्ति समस्त नगर वासियों और क्षेत्र वासियों के लिए आस्था का केंद्र है। राजमहल पेण्ड्रा के परिसर में पिछले 400 सालों से स्थित मंदिर में शारदीय नवरत्रि में मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है, साथ ही जवारा भी बोया जाता है। नगरवासी इस मंदिर में स्थापित काली मां एवं दुर्गा मां की पूजा ग्रामदेवी के रूप में करते हैं।
इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पिंडारी डाकुओं के द्वारा 16 वीं शताब्दी में कारीआम घाटी से लाकर पिंडरा वन में इस मूर्ति की स्थापना की गई थी। 17 वीं शताब्दी में दो योद्धाओं हिंदू सिंह तोमर और छिंदू सिंह तोमर ने पिंडरा वन क्षेत्र से पिंडारी डाकुओं का खात्मा किया था। दोनों योद्धा सगे भाई थे। इनकी वीरता से प्रभावित होकर उस समय के रतनपुर के कल्चुरी राजा ने दोनों योद्धाओं को पेण्ड्रा का जमींदार नियुक्त किया था। बता दें कि कालांतर में यहां के जंगलों का नाम पिंडरा वन और क्षेत्र पिंडारी डाकुओं से प्रभावित होने के कारण ही इस नगर का नाम पिंडरा पड़ा था, जिसे कि बोलचाल की भाषा में पेण्ड्रा कहा जाने लगा।
क्वांर नवरात्रि की तैयारी पेण्ड्रा नगर सहित आसपास क्षेत्रों में जोरों से की जा रही है। पेण्ड्रा नगर की ग्राम माता काली मंदिर में भी तैयारी जोरों पर है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां जो काली मां एवं दुर्गा मां की प्रतिमा स्थापित है, उन प्रतिमाओं को पिंडारी डाकुओं द्वारा 16वीं शताब्दी में स्थापित किया गया था। यह क्षेत्र प्राचीन काल में उत्तर भारत से दक्षिण भारत को जोड़ने का प्रमुख व्यापारिक मार्ग था। जिस मार्ग से व्यापारियों का आवागमन होता था। इन व्यापारियों से पिंडारी डाकुओं के द्वारा लूटपाट की जाती थी, इसके कारण पिंडारी डाकुओं से इस पूरे इलाके में आतंक फैला रहता था।
यहां तक की तत्कालीन रतनपुर राजा भी पिंडारी डाकुओं से परेशान थे। क्योंकि पिंडारी डाकू के लूटपाट और उनके लड़ने की छापामार शैली के कारण वह डाकू रतनपुर राजा के सैनिकों के हाथ नहीं आया करते थे। 17 वीं शताब्दी में रतनपुर राजा के सैनिक वसूले गए लगान और मोहर लेकर जब पिंडारा वन क्षेत्र से रतनपुर जा रहे थे तो कारीआम घाट के पास पिंडारी डाकुओं ने उन पर हमला कर उसे लूट लिया। उसी दौरान ग्वालियर क्षेत्र से काम की तलाश में जा रहे दो योद्धा हिंदू सिंह तोमर और छिन्दू सिंह तोमर ने पिंडारी डाकुओं से लोहा लेकर उपरोक्त लूटे गए मोहरों को वापस लिया और तत्कालीन रतनपुर राजा को ले जाकर वापस दिया। जिसके बाद रतनपुर राजा दोनों योद्धाओं की बहादुरी से प्रभावित होकर उन्हें पिंडरा क्षेत्र की जमींदारी सौंप दिए।
छत्तीसगढ़ राज्य के 36 गढ़ों में से 4 प्रमुख गढ़ों में पेण्ड्रा जमींदार के वंशज
पिंडरा क्षेत्र की जिम्मेदारी मिलने के बाद हिंदू सिंह और छिन्दू सिंह ने सबसे पहले अपने जमींदारी का केंद्र ग्राम सधवानी को बनाया। इलाके की दौरे के दौरान उन्हें वर्तमान गड़ी (राज महल) परिसर में एक पेड़ के नीचे काली मां एवं दुर्गा मां की पिंडारी डाकुओं द्वारा स्थापित प्रतिमा मिली। इस प्रतिमा की पूजा अर्चना करने के बाद ही पिंडारी डाकू लूटपाट के कार्य के लिए निकला करते थे। यहां काली एवं दुर्गा मां की प्रतिमा देखने के बाद हिंदू सिंह एवं छिंदू सिंह ने लोगों के मन से पिंडारी डाकुओं का पूरा भय खत्म करने के लिए इसी स्थान पर पहले मंदिर का निर्माण कराया और यहीं पर फिर उन्होंने गड़ी (राज महल) का निर्माण भी कराया, जहां पेण्ड्रा जमींदारी का मुख्यालय आज भी यथावत है। पेण्ड्रा जमींदारी का क्षेत्र काफी विशाल था। हिंदू सिंह एवं छिंदू सिंह का वंश जब बड़ा हुआ तो उन्होंने पेण्ड्रा जमींदारी को चार भागों में पोड़ी उपरोड़ा, मातिन, केंदा एवं पेण्ड्रा में विभाजित कर चारों स्थलों पर अपनी वंशजों को वहां का जमींदार नियुक्त किया। यह चारों जमींदारी आज भी छत्तीसगढ़ राज्य के 36 गढ़ों में से 4 प्रमुख गढ़ हैं।
पिंडारी डाकुओं ने कारीआम से ले जाकर की थी काली एवं दुर्गा मां की प्रतिमा स्थापित
राजमहल परिसर पेण्ड्रा में जो काली मां एवं दुर्गा मां की प्रतिमा स्थापित है उसे 16वीं शताब्दी में कारीआम घाटी से पिंडारी डाकुओं के द्वारा लाकर स्थापित किया गया था। पेण्ड्रा से बिलासपुर मुख्य मार्ग पर पड़ने वाले का कारीआम घाट को प्राचीन काल में काली ग्राम के नाम से जाना जाता था। समय के साथ बोलचाल की भाषा में इसी काली ग्राम को अब कारीआम कहा जाने लगा है।
मंदिर में थी बलिप्रथा, अब बंद करा दी गई
राजमहल परिसर के इस काली एवं दुर्गा मंदिर में पिंडारी डाकुओं के समय से ही बलि प्रथा का चलन था। धीरे धीरे परिवर्तन लाते हुए लगभग 20 साल पहले इस मंदिर में बलि प्रथा को खत्म कर दिया गया है। बलि प्रथा होने के कारण ही इस मंदिर में पुजारी नहीं बल्कि पंडा के द्वारा देवी की सेवा एवं पूजा अर्चना की जाती है।
इस मंदिर में पूजा अर्चना के बाद नगरवासी शुरु करते हैं शुभ कार्य
इस मंदिर में पूजा के बाद नगर के लोग शुभ कार्य प्रारंभ करते हैं। काली एवं दुर्गा मंदिर की यह विशेषता है कि इसे नगरवासी ग्राम देवी के रूप में पूजते आए हैं। किसी भी परिवार में कोई भी शुभ कार्य होता है या शादी ब्याह होता है तो सबसे पहले इस मंदिर में आकर देवी मां का आशीर्वाद लिया जाता है।
ग्राम देवी के रूप में पूजा की जाती है – राजा उपेंद्र सिंह
पेण्ड्रा जमींदारी परिवार के सदस्य एवं मंदिर प्रबंधन समिति के प्रमुख राजा उपेंद्र बहादुर सिंह ने बताया कि शारदीय नवरात्रि एवं चैत्र नवरात्रि दोनों ही अवसरों पर मंदिर में ज्योति कलश प्रज्वलित की जाती है एवं जवारा बोया जाता है। उन्होंने बताया कि इस मंदिर की देवी काली मां एवं दुर्गा मां ग्राम देवी के रूप में नगर वासियों द्वारा पूजी जाती हैं। उन्होंने इसे अपना कुलदेवी बताया। उन्होंने बताया कि नवरात्रि पर्व की सभी तैयारियां पूर्ण कर ली गई हैं।


