जीव के जन्ममरण का क्रम अनादि काल से चल रहा है और अनंतकाल तक चलता रहेगा – मुनिश्री प्रसाद सागर
जो भक्ति में लीन, उसे भूमि पर बिखरे बहुमूल्य रत्न भी माटी ही दिखाई देते हैं – मुनिश्री प्रसाद सागर
बुधवार को तपकल्याणक का पर्व मनाया गया
पेण्ड्रा / अमरकंटक में जैन धर्म का धार्मिक पंचकल्याणक पर्व विश्व कल्याण की भावना से श्रद्धा और भक्ति के साथ आचार्य विद्यासागर महाराज के ससंघ सानिध्य में मनाया जा रहा है जिसमें विभिन्न प्रांतों से हजारों श्रद्धालुओं के आवागमन का क्रम अनवरत चल रहा है।
इसी श्रृंखला में बुधवार को भगवान आदिनाथ का तप कल्याणक का क्रम रहा। बालरूप आदिकुमार का पाणिग्रहण, राज्याभिषेक और राजसभा के दृश्य प्रदर्शित किये गये। ऋंगार और राजसुख में जीवन जी रहे राजा आदिकुमार सभा में नृत्यांगना की मृत्यु देखते ही वैराग्य उमड़ जाता है और राजपाट सुविधाओं का त्याग कर वन में जाकर साधना रत हो जाते हैं।उन्हें इस काया संसार की नश्वरता का बोध हो जाता है।
इस दौरान श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुये आचार्य विद्यासागर के शिष्य और निर्यापक मुनिश्री प्रसाद सागर महाराज ने कहा कि जन्ममरण का क्रम जीव का अनादि काल से चल रहा है और अनंतकाल तक चलता रहेगा, किंतु जो जीव इसकी निस्सारता को समझ जाते हैं वे ऐसा जतन करते हैं कि ये जन्म उनका अंतिम जन्म हो और वे संसार से मुक्त होकर सिध्दालय में जा बसें। मुनिश्री ने बताया कि जो जन्म लेकर मोक्ष गये उनका हम संसारी जन्मकल्याणक मनाते हैं और ये भावना भाते हैं कि जैसा आपने जन्ममरण के फेरों से मुख फेर लिया, हम भी ऐसा ही फल पायें। भक्ति में लीन जनों को भूमि पर बिखरे मोतियों रत्नों को बीनने की, उठाने की सुध नहीं रहती।
मुनिश्री ने कहा कि काया की रुग्णता के लिये विज्ञान ने बहुत से साधनों का विकास कर लिया है मगर आज तक जन्म, जरा और मृत्युरोगों का कोई हल विज्ञान के पास नहीं है। इसकी चिकित्सा वीतराग की साधना से होती है और यही साधना कर प्रभु आदिनाथ परमानंद में लीन हो गये। अष्टकर्मों का विनाश कर अष्टम वसुधा को पा लिया। जीव जन्म से अकेला है और मरण में भी अकेला है, कोई साथी सगा नहीं होता।
आदिकुमार के वन गमन की विधि का चित्रण हुआ
बुधवार को अपरान्ह में आदिकुमार को तप करे वन गमन की विधि का चित्रण संपन्न हुआ। चित्रण में आदिकुमार का पाणिग्रहण के पश्चात राज्यभिषेक किया गया। इस अवसर पर देश विदेश के राज महाराजा सभा में उपस्थित थे। राजाओं ने अपने अपने राज्य की सामर्थ्य के अनुसार महाराजा आदिकुमार को कीमती उपहार भेंट में दिये। इनके ही काल में कल्पवृक्ष समाप्त होने लगे और प्रजा में त्राहि त्राहि होने लगी। तब युग आदि में महाराजा आदिकुमार ने संसार को असि मसि कृषि की शिक्षा देकर जीवन जीने की नवीन शैली सिखाई। असि का अर्थ तलवार की शिक्षा अपनी और देश की रक्षा के लिये, मसि का अर्थ शिक्षा और अक्षरज्ञान, कृषि करके भूख मिटाने की विधि बताई। उपयोगी और शाकाहारी प्राणियों से मित्रता का ज्ञान दिया। महाराजा आदिकुमार का राजपाट सुख से बीत रहा था कि एक दिन नीलांजना की नृत्य करते हुये मृत्यु को देख वैराग्य उमड़ गया और राजपाट का प्रबंध अपने सुयोग्य पुत्रों भरत और बाहुबली को देकर वनगमन किया।
आदिकुमार की प्रतिमा को ऋषभ सागर महाराज नाम दिया गया
आदिकुमार की प्रतिमा को आचार्य विद्यासागर महाराज ने दीक्षा देकर नया नामकरण मुनि श्री ऋषभ सागर महाराज नाम दिया।सुंदर वस्त्रों और अनमोल आभूषणों को प्रतिमा से उतारकर दिगंबरी वीतरागी संस्कार दिये।
केन्द्रीय मंत्री फग्गनसिंह कुलस्ते ने आचार्य विद्यासागर महाराज के दर्शन किए
प्रचार प्रमुख वेदचन्द जैन ने आगे जानकारी देते हुए बताया कि केन्द्रीय मंत्री फग्गनसिंह कुलस्ते ने अमरकंटक पहुंचकर आचार्य विद्यासागर महाराज के दर्शन कर आशीर्वाद लिया। कुलस्ते ने विशाल समुदाय के ठहरने और सभी समुदाय के लिये स्वादिष्ट भोजन कराने के लिये समिति की प्रशंसा की। उन्होंने स्वयं अतिथि शाला में आकर भोजन ग्रहण किया। ज्ञात हो कि रतलाम के सुप्रसिद्ध रसोइयों द्वारा भोजन बनाया जा रहा है।


